ये यकीन और उम्मीद की बात है,
पर घायल ही दोनो साथ साथ है,
इस इश्क़. को जाने अनजाने आज़माया है,
इसका अंदाज़ जुदा जुदा ही पाया है,
गुनहगार है जो की फ़र्क जानता है,
खुद को ग़ुलामी से अलहदा मानता है,
इंतज़ार का ये शायद कायल भी है,
रहता जो दिन रात घायल भी है,
माफ़ी मिल रही हर बार है, इतनी ! क्यों-कर, ये जुर्रत बार बार है?
सवालों पर सवाल से दग रहे हैं,
गोली बारुद बम से फट रहे है ,
हर बार माफ़ी का क्यों तलबगार है,
क्यों सब्र पर इसके इतना एतबार है,
फ़ेहरिस्त में कहाँ नाम लिखा लाया है,
ऐसा कौन सा हुनर हासिल पाया है,
कौन सा एहसान ऐसा चुकाया है,
रात दिन ही जो, यों तड़पाया है,
माफ़ी मिल रही हर बार है, इतनी ! क्यों-कर, ये जुर्रत बार बार है?
राह पर राहगीर बढ़े जा रहे हैं,
इसे ज़िद के कौड़े पड़े जा रहे है,
इसे मुठ्ठी में बांधने की ख़्वाहिश क्यों है,
इसकी इतनी आज़माइश क्यों है,
न इसे धन दौलत में मज़ा आता है,
ये तो जज़्बांतो से भरा जाता है,
करवट कर गया जो मुड ना आएगा,
देखना दुर्भर दौबारा इसका हो जाएगा,
माफ़ी मिल रही हर बार है, इतनी ! क्योंकर, ये जुर्रत बार बार है?
धुन में अपनी ये गुना जा रहा है,
सपने सजीले से बना जा रहा है,
अकेले चल चल मज़बूत हो रहा है,
ना समझो अपना वज़ूद खो रहा है,
ख़ौफ़ तो तनहाई से कतई नहीं है,
तनहाई इसके लिए और भी सही है,
शायद कुछ नई मंज़िल इसे पानी है,
शायद देर भी नहीं , न हैरानी है!
माफ़ी मिल रही हर बार है, इतनी ! क्यों-कर, ये जुर्रत बार बार है?
"सरोज"