धर रूप नए नए डर डराने रोज द्वार तेरे आएगा ।
कभी धीरे से कभी जोर से सांकल भी खटखटाएगा ।
कान से सुनाई देने लगे, घटती बढती धड़कने,
दिल पर हाथ रख कर, दिल दिलासा मंगाएगा ।
पगले ! कब तक ओट मे डरा सहमा सा घबराएगा ।
सब्र से सारी विधा जुटा , जब तत्पर तुणीर तू सजाएगा ।
एक एक डर को भेद निश्चित ही आएंगें।
सुलगते सटीक समय से निकलेंगें भी ,
तीर तेरे तेरी विजय पताका ,आवश्यक ही फरहाऐगें ।
'सरोज'